चहुंओर विधि के विधान को छोड़ बन रहा है भावनाओं का नया विधान
वीरेन्द्र शर्मा
यूं तो आस्थाओं के मान से ही विधान या फिर संविधान जैसे पूज्यनीय ग्रंथों की कल्पना अस्तित्व में आती है जो सामूहिक रूप से आस्थाबद्ध लोगों के समृद्ध जीवन निर्वहन के विधि विधान को निर्धारित करने सक्षम होती है मगर जिस तरह का कोहराम मौजूद आस्था, मान, सम्मान और विधान को लेकर सड़कों पर कटा पड़ा है वह आज हर नागरिक के लिए विचारणीय होना चाहिए। फिर देश के कई राज्यों में अचानक आए बलात्कार प्रकरणों उछाल को लेकर हों या फिर विधि के विधान अनुसार सेवा कल्याण को लेकर हो। जिसके लिए खासकर मप्र सहित बिहार में चुनाव आसन्न है जिसमें मप्र में होने वाले उप चुनाव की प्रक्रिया शुरू होते ही जीत के लिए दावे, प्रतिदावे, वादे, बेबफाई सभी तरह के जुमले ऐन-केन प्रकारेण जीत के लिए हो रहे है तो कई विधानसभा क्षेत्रों में खुलेआम नोट तक बंट रहे है अब ऐसे में जीत हार विगत 70 वर्षों में कई बार हो चुकी इस बार भी जिसकी भी हो हो मगर मौजूदा हालात में लगता नहीं कि सेवा कल्याण और विकास का भला होने वाला है और ना ही उप चुनाव में गौवंश के हक का मुद्दा भी अहम मुद्दा बनने वाला है। जल, जंगल, जमीन के हक से महरूम गौवंश की दुर्दशा का श्राप भले ही जाने-अनजाने में मानव भोगने विवश हो मगर ना तो मौजूद सत्ताऐं सेवा कल्याण और मानव यह स्वीकारने तैययार है कि वह अंजाने में ही सही कितना बड़ा गुनाह गौवंश के हक को छीन उन्हें जिंदा भूखा प्यासा मरना छोड़ पाप कर रहे है। बहरहाल जो भी हो जिस नैतिकता को कभी ईष्ट का माना हुआ सबसे अमूल्य आभूषण मानव समाज में माना जाता था आज वही दंश बन स्वयं की उपयोगिता खोता जा रहा है जो किसी भी शब्द शिक्षित मानव समाज के लिए शुभ नहीं कहा जा सकता।
जय स्वराज
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