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Friday, April 14, 2023

सच्चे अर्थों में राष्ट्रभक्त थे डॉ. अम्बेडकर : अमित भार्गव




शास. पी. जी.कॉलेज शिवपुरी में अम्बेडकर जयन्ती पर व्याख्यान कार्यक्रम हुआ आयोजित 

शिवपुरी- डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने सिर्फ भारत के संविधान की रचना में संविधान के मुख्य शिल्पकार के रूप में ही प्रमुख भूमिका नहीं निभायी, बल्कि उन्होंने अपनी विद्वता की छाप समाज-जीवन और राष्ट्रजीवन के हर क्षेत्र पर छोड़ी थी. वंचित और जरूरतमंद समाज के लोगों को समाज में सम्मानित स्थान दिलाने के लिए उनके द्वारा किया गया संघर्ष और उनके प्रयास अद्भुत और ऐतिहासिक हैं. उक्त विचार शासकीय पीजी कॉलेज शिवपुरी की जनभागीदारी समिति के अध्यक्ष अमित भार्गव ने अम्बेडकर जयन्ती के अवसर पर म.प्र. शासन के उपक्रम जन-अभियान परिषद और पीजी कॉलेज शिवपुरी के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित 'समानता-पर्व' कार्यक्रम को मुख्य अतिथि की आसंदी से संबोधित करते हुए व्यक्त किए.

अपने वक्तव्य में अमित भार्गव ने कहा कि डॉ. अम्बेडकर सामाजिक समरसता के सूत्रधार थे. वे सच्चे अर्थों में राष्ट्रभक्त थे. राष्ट्र निर्माण के मिशन में उन्होंने राष्ट्र की नींव में सभी सामाजिक वर्गों के अधिकारों को सुनिश्चित किया. अम्बेडकर जी का मानना था कि हमें राजनैतिक लोकतंत्र के साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र का भी सशक्तिकरण करना है तभी देश का लोकतंत्र चिरायु और शक्तिसम्पन्न बनेगा. 

           कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कॉलेज के लॉ डिपार्टमेंट के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर दिग्विजय सिंह सिकरवार ने कहा कि बाबा साहेब अंबेडकर के जीवन की  पहली थीसिस जिसने उनको दुनिया में पहचान दिलवायी वो थी – 'इंडियन ऐंसीएन्ट कॉमर्स’. इस विषय की तरफ उनका मन जाना और इस विषय पर रिसर्च करना इस बात का सबूत है कि बाबा साहेब अम्बेडकर का प्राचीन भारत की गरिमा और भारत के गौरव-गान से कितना अटूट और गहरा नाता था. उनकी आखिरी किताब जो उन्होंने अपने देहांत से केवल चार दिन पहले पूरी की थी, वो थी – ‘‘बुद्ध या कार्ल मार्क्स’. 

इस किताब में उन्होंने मार्क्सवाद को खारिज करते हुए बौद्ध-चिंतन की श्रेष्ठता को स्थापित किया था. बाबा साहेब के सामाजिक-आर्थिक चिंतन में मार्क्सवाद की तरह 'वर्ग-संघर्ष' को कोई जगह नहीं थी. उनका सामाजिक-आर्थिक चिंतन भारत की मूल मिट्टी से, भारत की मूल सांस्कृतिक धारा से जुड़ता है.  

       प्रोफेसर दिग्विजय सिंह सिकरवार ने बाबा साहेब अम्बेडकर के धर्मांतरण के निर्णय को देश के सामाजिक-सांस्कृतिक प्रवाह के आलोक में लिया गया निर्णय रेखांकित करते हुए कहा कि बाबा साहेब अम्बेडकर ने 1935 में 'धर्मांतरण' की घोषणा की थी. लेकिन धर्मान्तरण के निर्णय के लिए उन्होंने 21 साल का लम्बा इंतजार किया. वे चाहते थे कि समाज में आत्म-बदलाव आए. वे मानते थे कि धर्मांतरण से राष्ट्र को नुकसान उठाना पड़ता है.

 उनका मानना था कि किसी विदेशी धर्म को अपनाने से व्यक्ति अपने देश की परम्परा से भी टूटता है. इसलिए 14 अक्टूबर 1956 को जब उन्होंने धर्मान्तरण किया तो उस 'बौद्ध पंथ' को अपनाया जिसकी जन्मस्थली भारत है और जो भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक प्रवाह से ही जीवन-रस ग्रहण करता है. बाबा साहेब अंबेडकर के धर्मांतरण का यह निर्णय रेखांकित करता है कि देश की मिट्टी से उनका जुड़ाव कितना गहरा था. 

         कार्यक्रम में विचार रखते हुए राजनीति-विज्ञान के प्रोफेसर पुनीत कुमार ने कहा कि देश में अधिकतर लोग डॉ. अंबेडकर को केवल एक दलित नेता के रूप में जानते हैं, लेकिन वास्तव में वे एक लोकप्रिय विधिवेत्ता, राजनीतिज्ञ, चिंतक, विचारक, समाज सुधारक, अर्थशास्त्री, प्रतिभाशाली एवं जुझारू राष्ट्रनेता थे.

          कार्यक्रम के प्रारम्भ में प्रिंसिपल प्रोफेसर महेंद्र कुमार ने स्वागत भाषण दिया और डॉ. अम्बेडकर के राष्ट्रीय एवं सामाजिक योगदान को याद करते हुए उनके प्रति स्मृत्यान्जलि व्यक्त की. 

           कार्यक्रम के संचालन की कमान जन-अभियान परिषद के ब्लॉक समन्वयक शिशुपाल सिंह जादौन ने संभाली. कार्यक्रम में प्रेरणा गीत सच्चिदानंदगिरी गोस्वामी ने लिया. 

कार्यक्रम में प्रमुख रूप से जनभागीदारी समिति के सदस्य प्रमोद कुमार पांडेय, अक्षत बंसल, विकेश श्रीवास्तव, अल्पेश जैन, डॉ. विजय खन्ना, रेणु अग्रवाल, सांसद प्रतिनिधि मयंक दीक्षित, प्रोफेसर पवन श्रीवास्तव, प्रोफेसर जी.पी. शर्मा, प्रोफेसर गुलाब सिंह, प्रोफेसर जयप्रकाश श्रीवास्तव, प्रोफेसर जीतेन्द्र तोमर, प्रोफेसर शंकर सुमन सिंह भदौरिया, प्रोफेसर महेश प्रसाद, प्रोफेसर अनुराधा सिंह, विवेक उपाध्याय आदि प्रमुख रूप से उपस्थित थे.

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