किसान कल्याण को लेकर संसद से सड़क तक कोहराम
व्ही.एस.भुल्ले
अब इसे लोकतंत्र की विडंबना कहें या सेवा कल्याण में जुटे पुरूषार्थ का परिणाम कि संसद से लेकर सड़क तक किसान कल्याण को लेकर जो कोहराम मचा है उसके मायने क्या है, अगर सरकार की मानें तो उसकी निष्ठा और नीयत साफ है तो वहीं विपक्ष संदेह की नजर से सरकार के इस कदम को देखता है। निश्चित ही नए बिल में सरकार की मंशा किसानों की आय दोगुनी करने को लेकर निष्ठ हो जिसके लिए वह संसद से लेकर सड़क तक किसानों को बताने समझाने की कोशिश में है तो वहीं उसके दल की अन्य प्रदेशों में मौजूद सरकारें किसान राहत के माध्यम से किसानों को समझाने की कोशिश में लगे है मगर यहां यक्ष सवाल यह है कि जब हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत यह स्पष्ट है कि पांच साल तक जिस दल को देश की जनता सत्ता सौंपें उसे उसके विचार और विवेक अनुसार विधि सम्मत कार्य बगैर बाधा के करने देना चाहिए और इस बात से चुने हुए अन्य दलों के प्रतिनिधियों को भी यह स्पष्ट होना चाहिए कि जब जनता ने सरकार की कार्यशैली पर नजर और आमजन की समस्याओं उनके कल्याण से जुड़े मुददों को विधि अनुरूप सदन में रखना चाहिए अगर विधि सम्मत ज्ञान समझ होने के बाबजूद भी अगर सरकारें या विपक्षी दल हल्की लोकप्रियता हासिल करने सदन के समय और जनता के धन को स्व स्वार्थ के चलते अगर विधान विरूद्ध यह जनाकांक्षा आशा विरूद्ध आचरण करते है तो यह ना तो राष्ट्रजन के हित में हैं और ना ही किसान और उन दलों के जो किसानों के हितों को छोड़कर अपने हितों को सर्वोपरि मानने की असफल कोशिश करते है जब खुली प्रतिस्पर्धा का दौर हमारी अर्थ व्यवस्था की रीढ़ बनने आतुर है तो फिर ऐसे में कृषि क्षेत्र को बांधकर रखना या उसे एकदम से खुला छोड़ना दोनों ही सही नहीं कहे जा सकते है। सदन विचार बहस के लिए है और खेती-किसानी के क्षेत्र में क्या बेहतर हो सकता है उसे किस तरह से उद्योग और बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित किया जा सकता है इस पर बहस भी होना चाहिए और विचारों का अदान-प्रदान भी। क्योंकि देश की आधी से अधिक आबादी के जीवोत्पार्जन का माध्यम कृषि है और एक मजबूत अर्थव्यवस्था के लिए एक समृद्ध कृषि नीति का होना आवश्यक है।
जय स्वराज

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